उत्तराखंड: 100 वर्ष बाद फिर शुरू हुई देवरा यात्रा, देवभूमि में मां चंडिका से जुड़ी है ये खास परंपरा

उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर और धार्मिक परंपराओं में एक नई जागृति आई है। 100 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद, देवभूमि में ऐतिहासिक देवरा यात्रा का आयोजन हुआ। यह यात्रा मां चंडिका देवी को समर्पित है, जो क्षेत्र के निवासियों की आराध्य देवी मानी जाती हैं। इस विशेष यात्रा ने स्थानीय लोगों के साथ-साथ पर्यटकों का भी ध्यान आकर्षित किया है।

क्या है देवरा यात्रा?

देवरा यात्रा, उत्तराखंड की प्राचीन धार्मिक परंपराओं का हिस्सा है। यह यात्रा मां चंडिका की विशेष पूजा-अर्चना और उत्सव के रूप में मनाई जाती है।

  • मां चंडिका का महत्व: मां चंडिका देवी को शक्ति और न्याय की देवी माना जाता है। इस यात्रा के माध्यम से उनका आह्वान किया जाता है।
  • आस्था का प्रतीक: देवरा यात्रा न केवल धार्मिक, बल्कि सामाजिक एकता का भी प्रतीक है।
  • यात्रा का आयोजन: इस यात्रा में पारंपरिक वाद्ययंत्रों, झांकियों और भक्तों की शोभायात्रा शामिल होती है।

100 वर्षों के बाद क्यों हुई शुरुआत?

देवरा यात्रा पिछले 100 वर्षों से स्थगित थी। इसके पीछे कई कारण थे, जैसे सामाजिक परिस्थितियां, आर्थिक समस्याएं और बदलते समय के साथ परंपराओं का लोप।

  • स्थानीय लोगों की पहल: ग्रामीणों और स्थानीय प्रशासन ने मिलकर इस यात्रा को पुनः शुरू करने का फैसला किया।
  • धार्मिक महत्व: लोगों की आस्था और परंपराओं को जीवित रखने के लिए यात्रा को दोबारा शुरू किया गया।

यात्रा के मुख्य आकर्षण

  1. विशेष पूजा-अर्चना: मां चंडिका का भव्य श्रृंगार और पूजा कार्यक्रम आयोजित किया गया।
  2. पारंपरिक झांकियां: देवी के विभिन्न रूपों को दर्शाने वाली झांकियां यात्रा का मुख्य हिस्सा थीं।
  3. सांस्कृतिक कार्यक्रम: लोकगीत, नृत्य और वाद्ययंत्रों की धुनों ने यात्रा को और खास बना दिया।
  4. भक्तों की भारी भीड़: स्थानीय लोगों के साथ-साथ देशभर से भक्त इस यात्रा में शामिल हुए।

मां चंडिका से जुड़ी आस्था

देवरा यात्रा केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह मां चंडिका के प्रति लोगों की गहरी आस्था का प्रतीक है। मान्यता है कि मां चंडिका अपने भक्तों की रक्षा करती हैं और उनकी मनोकामनाएं पूरी करती हैं।

यह यात्रा न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने का प्रयास भी है। 100 वर्षों के लंबे इंतजार के बाद यह परंपरा पुनर्जीवित हुई है, जो राज्य की समृद्ध संस्कृति और धार्मिक आस्था को संजोने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

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